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ज्योतिष 

वेद के छ: अंग कौन कौन से हैं !

श्लोक= छंद: पदौ तु वेदस्य हस्तौ कYपोथ पठ्यते ज्योतिषामयनं चक्षुनिर्मारूक्ततं स्तोत्रमुच्यते !

शिक्षा ग्राणं तु वेदस्य् मुखं व्याकरणं स्मृतं तस्मात्साड़मधीत्यैव ब्रह्मलोके माहियते॥

भावार्थ= छन्द शास्त्र वेद रूपी पुरुष के पैर है कल्पशास्त्र उसके दो हाथ है और ज्योतिष शास्त्र दो नेत्र हैं ,निरुक्तदो कान है शिक्षा शास्त्र नासिक है !और व्याकरण शास्त्र मुख है! अत: अंगों सहित वेदों का अध्ययन करके ही मनुष्य ब्रह्म लोक में महिमा को प्राप्त होता है ॥

श्लोक= यथा शिक्षा मयूराणां नागाणां मणयो यथा !

तदवद वेदांग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनिस्थितम ॥

भावार्थ=जैसे मोरों मैं शिखा और नागो में मणि का

स्थान सबसे ऊपर है वैसे ही वेदांग और शास्त्रों में ज्योतिष का स्थान सबसे ऊपर है !

श्लोक= सिद्धांत संहिता होरा रूपम स्कंधत्रयात्मकमं!

वेदास्य निर्मलम चक्षु: ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम॥

भावार्थ= वेद के निर्मल चक्षु ज्योतिष शास्त्र को सिद्धांत संहिता होरा इन  स्कंधो में कल्पित किया गया है!

१. सूर्यादिग्रह चरेणाधारीकृत्य निर्मितं शास्त्रं ज्योतिषम                 (नृसिंहदैवज्ञ:)

२. ज्योतिषि ग्रहनत्राण्यधिकृत्य कृतो ग्रंन्थो ज्योतिषम ”          (सिद्धान्त शिरोमणिटीकायम)

३. ज्योतिष-पिण्डानि प्रतिपाधन्ते यास्मिन तत् ज्योतिष मिलि”             (आचार्य मुरलीधर:)

४. ज्योर्तीषि ग्रहनक्षत्रादीनधिकृत्य कृत्यों ग्रन्थो ज्योतिष इति”                    (अमरकोष:)

.वेद अस्माकं ज्ञानमूलं कर्णमूलञ्च तत्रोक्तज्ञानादय: यज्ञादयाश्चकालाश्रिता: अतः ज्योतिषशास्त्रं कालविधानशास्त्रम् अस्ति !

६. यो ज्योतिषं वेत्ति नर: से सम्यक्॒ धर्मार्थकामान लभते यशश्च      (भास्करेण प्रोक्तं सि. शिरो.)

ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रमं !

अर्थ‌ = सूर्य आदिग्रह और कल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा गया है!

#  ग्रह नक्षत्र धूमकेतु आदि ज्योति पदार्थो का स्वरूप संचार परिभ्रमण काल ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह नक्षत्रों की गति स्थिति और संचारानुसार शुभ अशुभ फलों का कथन किया जाता है! कुछ मनीषियों का अभिजीत है की मनोमण्डल मैं स्थित ज्योति सम्बन्धि विधिक विषयक विद्या को ज्योतिरविद्या

कहते हैं जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपांग वर्णन रहता है वह ज्योतिष शास्त्र है!

#  ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तका: अष्टादशाचार्या

श्लोक= सूर्य: पितामहो व्यासो वशिष्ठोत्रि: पराशर: कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मरङिरा:!

लोमश: पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगु: शौनकोष्टादशश्चैते ज्योति: शास्त्रप्रवर्तका:॥

अर्थ= सूर्य ब्रह्मा व्यास वशिष्ठ अत्री पराशर कश्यप नारद गर्ग मरीचि मनु अंगिरा लोमश रावण व्यवन्य यवन भृगु और शौनक ये अचार्य ज्योतिष शास्त्र १८ प्रवर्तक है !

# भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कन्धत्रय होरा सिद्धांत संविदा अथवा स्कंध पंच-होरा सिद्धांत संहिता प्रश्न सकून ये अंग माने गए हैं! यदि विराट पंच स्कंन्धात्क परिभाषा का विशलेषण किया जाए तो आज का मनोविज्ञान जीव विज्ञान पदार्थ ज्ञान रसायन विज्ञान चिकित्सा विज्ञान इत्यादि भी इसी के अन्तर्भूत होते हैं !

होरा #

भारतीय ज्योतिष की परिभाषा के स्कन्धत्रय होरा सिद्धांत संविदा अथवा स्कंध पंच-होरा सिद्धांत संहिता प्रश्न सकून ये अंग माने गए हैं! यदि विराट पंच स्कंन्धात्क परिभाषा का विशलेषण किया जाए तो आज का मनोविज्ञान जीव विज्ञान पदार्थ ज्ञान रसायन विज्ञान चिकित्सा विज्ञान इत्यादि भी इसी के अन्तर्भूत होते हैं !

गणित या सिद्धांत =

इस प्रकार होरा शास्त्र की परिभाषा निरंतर विकसित होती आ रही है इनमें त्रुटि से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना सौर चांद्र मासों का प्रतिपादन गृह कृतियों का निरूपण व्यक्त-अव्यक्त गणित का प्रयोजन विविध प्रश्नोत्तर विधि ग्रह नक्षत्र की स्थिति नाना प्रकार के तुरीय नलिका इत्यादि यंत्रों की निर्माण-विधि अधिक देश कल्याण के अनन्यतम उपयोगी अंग अक्षक्षेत्र -संबंधी अक्षज्या लम्बज्या धुज्या कुज्या तदधृति समशंकु इत्यादि का आनयन रहता है! प्राचीन काल में इसकी परिभाषा केवल सिद्धांत गणित के रूप में मानी जाती थी आदिकाल में अंकगणित द्वारा ही  अहर्गण -मा साधकर ग्रहों का आनयन करना इस शास्त्र का प्रधान प्रतिपाद्य विषय था !

# संहिता =

इसमें भुशोधन दिकशोधन शल्योद्धार मेलापक आयाद्यानयन ग्रहोपकरण ईष्टिकाद्वार गेहारम्भ गृहप्रवेश जलाशय-निर्माण मांगलिक कार्यों के मुहूर्त उसका पाठ दृष्टि ग्रहों के उदयास्त का फल गृहचार का फल एवं ग्रहण-फल आदि बातों का निरूपण विस्ताररूपक किया जाता है कुछ जैन आचार्यों ने जीवनपयोगी आयुर्वेद की चर्चाएं भी संहिता के अंतर्गत रखी है !

प्रश्न शास्त्र =

यह तत्काल फल बतलाने वाला शास्त्र है इसमें प्रश्न करता के उच्चरित अक्षरों पर से फल का प्रतिदान किया जाता है इसके भी तीन भेद दृष्टिगत है इसमें-चर्चा चेष्टा भाव भाव आदि के द्वारा मनोगत भाव का वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करना भी इस शास्त्र के अंतर्गत आ गया है!

#शकुन =

इसका अन्य नाम निमित्तशास्त्र भी मिलता है पूर्व मध्यकाल तक इसने पृथक स्थान प्राप्त नहीं किया था किंतु संहिता के अंतर्गत ही इसका विषय आता था इसकी विषय सीमा में प्रत्येक कार्य के पूर्व में होने वाले शुभ-अशुभों का ज्ञान प्राप्त करना भी आ गया! वसंतराजशकुन अद्भुतसागर जैसे शकुन ग का निर्माण इसी परिभाषा को दृष्टि में रखकर किया प्रतीत होता है !

ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मण आदि के अध्ययन से पता चलता है कि आज से कम से कम 28000 वर्ष पहले भारतीयों ने खगोल और ज्योतिष शास्त्र का मंथन किया था वह आकाश निहारिका आदि के नाम रूप रंग आकृति के पूर्णतय परिचित थे !

#ब्रह्म व्यक्तित्व=

वह है जिसने इस भौतिक शरीर के रूप में अवतार लिया है यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचार भाव और क्रियो की ओर झुकाव प्राप्त करता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा इस व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है !

#आन्तरिक व्यक्तित्व=

वह है जो अनेक बाह्य व्यक्तित्व की स्मृतियों अनुभवों और प्रवृत्तियों का  संश्लेषण अपने में रखता है बाह्य और आंतरिक इन दोनों व्यक्तित्व संबंधी चेतना के ज्योतिष में विचार अनुभव और क्रिया यह तीन रूप माने गए हैं बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप आंतरिक व्यक्तित्व के इन तीनों रूप से सम्बन्ध्द है पर आंतरिक व्यक्तित्व के तीन रूप अपनी निजी मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों जगत का संचालन होता है

ग्रहों के कारक= vkRek dk lw;Z] मन का चंद्रमा] धैर्य का मंगल] वाणी का बुध] विवेक का गुरु] वीर्य का शुक्र] संवेदना का शनिA

ग्रह मैत्री (पीयूषधारायां कश्यप)

रवे: समो ज्ञो मित्राणी चंद्रारेज्या: परावरीA

इंदोर्न शत्रवो मित्रे रविज्ञावितरे समाः ॥

समौ कुजस्य शुक्रार्की बुधोरी सुहृद: परेA

ज्ञस्य चन्द्रो रिपुर्मित्रे शुक्रार्की वितरे समा: ॥

 गुरोरारेन्दुजा मित्राण्यर्की मध्य: परावरीA

भृगो: समाविज्यकुजौ ज्ञार्कौ परौ रिपु ॥

शवेगुर्रुससमो मित्रे शुक्रज्ञो शत्रवः परे ।

कश्यपेनोदितः श्लोका इमे ज्ञेया विचक्षणै:॥

ग्रहो की अवस्थाएँ= ओजर्क्षे क्रमाद्वालकुमारयुवावृद्धमृताख्या अवस्था:समर्क्षे  व्यत्ययः॥

 विषम राशियों में क्रमशः बाल्यावस्था कुमारावस्था युवावस्था वृद्धावस्था और मृतावस्था- ग्रहों की पांच अवस्थाएं होती हैA

 सम राशियों मेंअवस्थाओं का क्रम इसके विपरीत होता है॥

 पूर्वाचार्यों ने प्रत्येक राशि में 6-6 अंशो की 1-2अवस्था मानी है। विषम राशि में प्रथम छे अंशो में स्थित ग्रह की बाल्यावस्था होती है किन्तु सम राशि में प्रथम 6 अंशों में स्थित ग्रहों की मृतावस्था होती है। इसी प्रकार अन्य अवस्थाएं भी अंशपरक होती है।

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